Reetikaal / lरीति काल – उत्तर मध्य काल – हिंदी साहित्य का इतिहास

उत्तर मध्य काल हिंदी साहित्य का इतिहास या रीतिकाल साहित्य (Reetikaal Hindi Sahitya Ka Itihas – 1650 ई०- 1850 ई०):  नामांकरण की दृष्टि से उत्तर-मध्यकाल हिंदी साहित्य के इतिहास में विवादास्पद है। इसे मिश्र बंधु ने -अलंकृत काल, तथा रामचंद्र शुक्ल ने -रीतिकाल, और विश्वनाथ प्रसाद ने -श्रृंगार काल कहा है। Today we share about रीतिकाल के किन दो कवियों पर तुलनात्मक आलोचना पद्धति से खूब विचार हुआ है ?, रीतिकाल की प्रमुख काव्य धारा कौन-कौन से हैं, रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ PDF, रीतिकालीन काव्य एवं लक्षण ग्रंथों की परंपरा, रीतिकाल का वर्गीकरण, हिंदी पद्य साहित्य का काल विभाजन, रीतिकाल के रीतिसिद्ध कवि, रीतिकाल के कवि और रचनाएँ |

No.-1. रीतिकाल के उदय के संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है- इसका कारण जनता की रुचि नहीं, आश्रय दाताओं की रूचि थी, जिसके लिए वीरता और अकर्मण्यता का जीवन बहुत कम रह गया था।

No.-2. रीतिकालीन कविता में लक्ष्मण ग्रंथ, नायिका भेद, श्रृंगारिकता आदि की जो प्रवृतियां मिलती है उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थी। हिंदी में “रीति” या “काव्यरीति” शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को “रीतिकाव्य” कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं।

No.-3. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार संस्कृत के प्राचीन साहित्य विशेषता रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने प्रेरणा ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तर कालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व प्रभाव लिया। लक्ष्मण ग्रंथ, नायिका भेद, अलंकार और संचारी भावों के पूर्व निर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर यह कवि बधी सधी बोली में बंधे सदे भाव की कवायद करने लगे। ।

No.-4. इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में शृंगार की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्त, सवैये और दोहे इस युग में लिखे गए।

No.-5. कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई।

रीतिकाल के कवियो का इतिहास

No.-1. रीतिकाल के अधिकांश कवि दरवारी थे अर्थात राजाओ के दरवार में अपनी कविता किया करते थे जिससे उनकी कविता आम लोगो तक सही से नहीं मुखर हो पायी –

#रीतिकाल के कविउनका दरवार
No.-1.केशवदासओरछा
No.-2.प्रताप सिंहचरखारी
No.-3.बिहारीजयपुर, आमेर
No.-4.मतिरामबूँदी
No.-5.भूषणपन्ना
No.-6.चिंतामणिनागपुर
No.-7.देवपिहानी
No.-8.भिखारीदासप्रतापगढ़-अवध
No.-9.रघुनाथकाशी
No.-10.बेनीकिशनगढ़
No.-11.गंगदिल्ली
No.-12.टीकारामबड़ौदा
No.-13.ग्वालपंजाब
No.-14.चन्द्रशेखर बाजपेईपटियाला
No.-15.हरनामकपूरथला
No.-16.कुलपति मिश्रजयपुर
No.-17.नेवाजपन्ना
No.-18.सुरति मिश्रदिल्ली
No.-19.कवीन्द्र उदयनाथअमेठी
No.-20.ऋषिनाथकाशी
No.-21.रतन कविश्रीनगर-गढ़वाल
No.-22.बेनी बन्दीजनअवध
No.-23.बेनी प्रवीनलखनऊ
No.-24.ब्रह्मदत्तकाशी
No.-25.ठाकुर बुन्देलखण्डीजैतपुर
No.-26.बोधापन्ना
No.-27.गुमान मिश्रपिहानी

No.-1. अनेक कवि तो राजा ही थे, जैसे- महाराज जसवन्त सिंह (तिर्वा), भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि (दतिया के जमींदार), महाराज विश्वनाथ, द्विजदेव (महाराज मानसिंह)।

रीतिकाव्य साहित्य का आरंभ

No.-1. रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य केशवदास, जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचंद्रिका हैं। कविप्रिया में अलंकार और रसिकप्रिया में रस का सोदाहरण निरूपण है। लक्षण दोहों में और उदाहरण कवित्तसवैए में हैं। लक्षण-लक्ष्य-ग्रंथों की यही परंपरा रीतिकाव्य में विकसित हुई। रामचंद्रिका केशव का प्रबंधकाव्य है जिसमें भक्ति की तन्मयता के स्थान पर एक सजग कलाकार की प्रखर कलाचेतना प्रस्फुटित हुई।

No.-2. केशव के कई दशक बाद चिंतामणि से लेकर अठारहवीं सदी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ जिसमें नर-नारी-जीवन के रमणीय पक्षों और तत्संबंधी सरस संवेदनाओं की अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति व्यापक रूप में हुई।

No.-3. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिकाव्य का शुरूआत केशवदास से न मानकर चिन्तामणि से माना है| उनका कहना है कि – ” केशवदास जी ने काव्य के सब अंगो का निरूपण शास्त्रीय पद्धति पर किया | यह नि:सन्देह है कि काव्यरीति का सम्यक समावेश पहले पहल ऑ.केशव ने ही किया | हिन्दी में रीतिग्रन्थों की अविरल और अखंडित परम्परा का प्रवाह केशव की “कविप्रिया ” के प्राय:पचास वर्ष पीछे चला और वह भी एक भिन्न आदर्श को लेकर केशव के आदर्श को लेकर नही |” वे कहते है कि-“हिन्दी रीतिग्रन्थो की अखण्ड परम्परा चिन्तामणि त्रि.से चली , अत:रीतिकाल का आरम्भ उन्हीं से मानना चाहिए”

रीतिकाल के कवि

No.-1. रीतिकाल के कवियों को तीन वर्गों में बांटा जाता है – 1. रीतिबद्ध कवि 2 . रीतिसिद्ध कवि 3 . रीतिमुक्त कवि।

रीतिबद्ध कवि

No.-1. रीतिबद्ध कवियों ने अपने लक्षण ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परंपरा का निर्वाह किया है। जैसे- केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, सेनापति, देव, आदि। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत कहा है।

रीतिसिद्ध

No.-1. रीतिसिद्ध कवियों की रचना की पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से साफ पता चलता है कि उन्होंने काव्यशास्त्र को पचा रखा है। बिहारी, रसनिधि आदि इस वर्ग में आते हैं।

रीतिमुक्त कवि

No.-1. रीति परंपरा से मुक्त कवियों को रीतिमुक्त कवि कहा जाता है। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा आदि इस वर्ग में आते हैं।

No.-2. आलम -आलम इस धारा के प्रमुख कवि हैं। इनकी रचना “आलम केलि” है।

No.-3. घनानंद- रीतिमुक्त कवियों में सबसे अधिक प्रसिद्द कवि हैं। इनकी रचनाएँ हैं – कृपाकंद निबन्ध, सुजान हित प्रबन्ध, इश्कलता, प्रीती पावस, पदावली।

No.-4. बोधा- विरह बारिश, इश्कनामा।

No.-5. ठाकुर- ठाकुर ठसक, ठाकुर शतक।

रीति काव्य की विशेषता

No.-1. हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं ।

No.-2. संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया ।

No.-3. प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए, उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए ।

No.-4. इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा ।

No.-5. परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारू रूप से नहीं हो सका ।

रीति काल  के काव्य अंगो का विवेचन

No.-1. काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया । शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया । रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई । लक्षण पद्य में देने की परम्परा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं ।

No.-2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है – “हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते । वे वास्तव में कवि ही थे ।”

No.-3. लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है । अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं ।

No.-4. श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते ।

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